आजकल!!
कुछ अलग नहीं होती है गाँव में ज़िन्दगी।
कुछ वो हैं जिन्हें पता नहीं वरना सब सपना चौधरी का नाच देखते हैं या देखना चाहते हैं, कटरीना का अनुसरण करते हैं या करना चाहते हैं, व्हाट्सएप्प पर अफवाएं पढ़ते है, फैलाते हैं, फेसबुक पर वक्त बर्बाद करते हैं। सिर्फ भारत का किसान ही है जो, अपना कीमती समय निकाल कर, इन आकर्षणों को परे रख, अपना पसीना बहाता है ताकि हम जैसे सब देशवासी भूखें ना रहे। ताकि हम जैसे देशवासी बड़े-बड़े वातानुकूलित मॉल में जाकर उसके द्वारा बोये गये फल व सब्जियां खरीदें, इंटरनेट पर खरीदें, घर के दरवाज़े पर खरीदें, या बड़ी गाड़ियों में सवार हो रेहड़ियों से खरीदें और फिर बड़े चाव से उनका पान करें। और मज़े की बात यह है कि उन स्वादिष्ट छप्पन भोग की कीमत का मात्र कुछ दशमलव हिस्सा बाज़ार ने उसकी मेहनत का मेहनताना तय कर दिया है क्योंकि वह गाँव में रहता है जहाँ के घर छोटे होते हैं कच्चे भी होते हैं वहां शौचालय तक नहीं होते, वह शहर वालों की तरह आकर्षित नहीं दिखना चाहता, वो इंस्टाग्राम पर अपनी सेल्फी नहीं डालना चाहता, वो सिनेमा में लड़की के साथ सोफे पर हाथों में हाथ डाले मज़े से बैठ पॉपकॉर्न नहीं खाना चाहता, वह गाँव में रहता है जहाँ एयर कंडीशनर की जरुरत नहीं है, जहाँ उसकी जरूरतों की कीमत ना के बराबर हैं, वह तो अपना जीवन मात्र एक सन्यासी की तरह बिताना चाहता है।
मुझे कोई इस बात का जवाब दे कि क्यों हम गाँवों को शहर न बनाएं? शहरों में गलत क्या है? शहरों में गाँव जैसी झोपड़ियां बना महँगा किराया देने में तो बहुत सुख प्राप्त होता है। कभी झोपड़ियां अच्छी लगती हैं, कभी बंगलें, कभी गगनचुम्बी इमारतें तो कभी ज़मीन से नीचे बने घर अच्छे लगते हैं।
कभी कुछ अच्छा लगा तो कभी कुछ। कभी रंगीन सिनेमा अच्छा लगा फिर जब मन ऊब गया तो सफ़ेद और काला सिनेमा अच्छा लगने लगा। जब तक मज़ा आया तब तक खूब लिया, फिर जब नहीं आया तो दूसरों को उसकी बुराईयाँ बतानी शुरू कर दी क्योंकि हर चीज़ में अच्छाई और बुराई दोनों हैं।
कभी खुद शहर में रहने-पढ़ने वाले, शहरों की आधुनिकताओं, सुविधाओं और चकाचौंध बाजार का मज़ा लेने वाले जब गाँव को शहर ना बनाने का राग अलापते है तो ऐसा लगता है जैसे जंगल का शेर दूसरें शेरों को शाकाहारी बनने की सलाह दे रहा हो।
अगर कोई गाँव को शहर नहीं बनने देना चाहता तो उसकी शहरों की परिभाषाओं में खोट है। मेरा शहर अच्छा है और मुझे शहर बहुत पसंद हैं। शहर कभी गंदे नहीं थे, शहर अच्छे ही थे और अभी भी अच्छे ही हैं, अगर गन्दे हैं तो उन्हें गन्दा बनाया है उसके नागरिकों ने। और फिर जब शहर गन्दे हो गए तो गाँव का कीचड़ भी अच्छा लगने लगा और सब चल पड़े गांव की ओर। अभी भी हर शहर गाँव ही तो है। मुझसे अब भी कोई मेरा गाँव पूछता है तो मैं मेरे शहर का नाम बता देता हूँ।
ओह्ह हो!!!!!!
कृपया करके गांव को शहर बनने दें। उन्हें भी एक नई दुनिया का अनुभव लेने दें और फिर उन्हें चुनने दें कि गाँव को गाँव बोलना है या शहर।